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"बारिश की फुहार..."

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कभी कभी दिल करता है, की बन जाएं बारिश की बूंदे छन से छनक जाएं उनमुक्त होकर बह जाएं बन के सावन की बहार.. मचल जाएं और बह जाएं, नहरों में नदियों में और मिल जाएं अपने अस्तित्व के सागर में कहीं। और पा जाएं अपने जीवन का सार.... लेकिन क्या करें जीवन ने बना दिया है आवारा बादल, बहते रहते हैं जो आकाश में, शुष्क और बंजर... परिस्थितियों की जलती धूप में, बस भटकते रहते हैं दर बदर.... और जब भी बहने का मन करता है... आंखो से आंसू बन कर बह जाती हैं मेरे सपनो की "बारिश की फुहार"...!!!

कोरोना काल में आम आदमी!!!

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कोरोना काल में आम आदमी!!! कैसी ये बीमारी है, आम आदमी का शनि भारी है।  काम धंदे बंद हैं, और खर्चे जारी हैं,  वाह रे भाई कैसी  ये बीमारी है। घर के बाहर जाओ तो कोरोना है, घर के अंदर बीवी से जंग  जारी है , हे भगवन कैसी ये बीमारी है ।

गधा......!!!

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ताहा हुसैन की एक छोटी-सी कहानी है कि भगवान ने सब जानकर बनाए, पृथ्वी बनाई, चांदत्तारें बनाए, तभी उसने गदहा भी बनाया। गदहा सीधा-सादा जानवर है; निर्दोष, भोला-भाला। और परमात्मा को गदहे से बड़ा प्रेम था। वह उसे अपने पास ही रखता था। उसकी सादगी उसे पसंद थी। और परमात्मा किताब लिख रहा था एक–मनुष्य-जाति को निर्दोष भेजने के लिए–कि कैसे आदमी जीए। वृक्ष के पत्तों पर वह किताब लिखता था और पत्तों को सम्हाल कर रखता जा रहा था। गहदा यह देखता था: गदहे को एक बात खयाल में आई कि अगर मैं ये सारे पत्ते चबा जाऊं, तो मैं परमज्ञानी हो जाऊंगा। गदहा आखिर गदहा! परमात्मा एक दिन दोपहर में सोया था थका मांदा–किताब करीब-करीब पूरी हो गई थी–कि गदहा उस किताब को चर गया। अब परमात्मा ने आंख खोली, तो किताब तो नदारद थी और गदहा बड़ा प्रसन्न खड़ा था! उसने कहा: आप फिक्र मत करो, सब मेरे भीतर है। अब किताब के भेजने की जरूरत नहीं है; मुझे दुनिया में भेज दो। वैसे भी परमात्मा नाराज था; उसे स्वर्ग से निकालना तो था ही; उसने कहा: अच्छा तू दुनिया में जा। गदहा बड़ा प्रसन्न पृथ्वी पर उतरा। सोचता था कि मेरी पूजा होगी। पूजा हुई–डंडों स

खुद को समेट लाना।

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शाम को बैठा था ऑफिस में , तभी घर से कॉल आया,  बीवी बोली घर कब तक आओगे, तैयारी करनी है बोलो क्या खाओगे? में अपनी ही उलझनों में था झल्ला गया  और बोला  क्यों परेशां करती हो? मर्ज़ी है तुम्हारी जो चाहो बना लेना, मुझे देरी होगी तुम और बच्चे खाना खा लेना।  और कुछ लाना है तो बताओ ? वरना  कॉल रखो और मेरा सर ना खाओ।  सहमी  सी बीवी बोली, और क्या लेकर आओगे, कोशिश करना आते हुए खुद को पूरा समेट  लाना।  आजकल जभी भी घर आते हो आधे अधूरे आते हो....  अपने अधूरे ख्वाब और अधूरे सपने कहाँ रख आते  हो? आज जब घर आना पूरे होकर आना , और अपना अधूरा हिस्सा साथ लेकर आना। 

लिखता हूँ कभी....

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लिखता हूँ कभी यूं ही बस लिखने के लिए, दुनिया की भीड़ में कुछ अलग दिखने के लिए।  लिखता हु कभी याद तेरी आती है जब, लिखता हु कभी दौर ए  उदासी छाती है तब।  लिखता हूँ  इस उम्म्मीद  में की तू पढ़ ले, लिखता हु हाल ए  दिल तू समझ जाए कभी।  लिखता हु ज़मी आसमा लिखता हु, लिखता हु जब तनहा उदास होता हूँ  कभी। 

मैं तेरा हूँ.....

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मैं तेरा हूँ तुझे हर सम्त मैं बताता हूँ , तू मेरा है कभी तुझसे भी सुनना चाहता हूँ। तू   आएगा कभी इस बात का यकीन है मुझे , अभी भी तेरे सलीके से घर सजता हूँ। हर एक रोज़ आज़माती है मेरी किस्मत मुझको , हर एक रोज़ में किस्मत को आज़माता हूँ। ना भूल जाऊँ तेरा चेहरा इसी डर से सदा ... तेरी तस्वीर बनता हूँ और मिटाता हूँ।   गौरव कुमार " अनुभव "

सफ़र.....

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सफर दर सफर तुम चलो चलो साथ गर  हम मोहब्बत से रस्ते सजाते रहें।  हर नज़र पे तेरी हर कदम पर तेरे  धड़कनो को हम अपनी बिछाते रहे..  वो हर बेबसी वो हर एक झिझक , रोकती है जो तुम्हे थमती है कदम  वो शर्म वो हाय वो हर एक वाक्या  हम किताबो से दिल की मिटते रहें।  गर तेरी चाहते मेरी चाहत में हों , गर तेरी धड़कने मेरी साँसों में हों.... हमको तेरी कसम तेरी साँसों पे हम, ज़िंदगानी भी अपनी लुटाते रहें।